प्रतीकात्मक तस्वीर।
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ग्लोबल वार्मिंग के कारण फसलों की घटती पैदावार का असर साफ दिखने लगा है, तपती गर्मी ने उत्तर प्रदेश और राजस्थान में इस बार खरीफ की फसलों को वक्त से पहले ही तैयार कर दिया और कई जगह फसलें खराब होती भी दिखीं। साथ ही बेहिसाब बारिश ने भी फसलों को चौपट कर दिया है। इस साल भीषण गर्मी को देखते हुए पहले ही कृषि वैज्ञानिकों ने आगाह कर दिया था कि गेहूं उत्पादन 2021-22 में लगभग तीन प्रतिशत गिरावट के साथ 10 करोड़ 68.4 लाख टन रहने का अनुमान है।
इससे आम आदमी पर महंगाई की मार पड़ेगी। मार्च से ही ‘लू’ चलने के कारण पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में फसल खराब हो गई और गेहूं के उत्पादन में गिरावट दर्ज हुई है। यही हाल दलहनी फसलों और मोटे अनाज का रहा। कृषि मंत्रालय ने फसल वर्ष 2021-22 के लिए चौथा अग्रिम अनुमान जारी करते हुए कहा था कि मोटे अनाज का उत्पादन पांच करोड़ 13.2 लाख टन से घटकर पांच करोड़ नौ लाख टन रहने की संभावना है।
मंत्रालय ने मोटे अनाज का उत्पादन पांच करोड़ 13.2 लाख टन से घटकर पांच करोड़ नौ लाख टन रहने की आशंका व्यक्त की। इस बार राजस्थान में मेथी का उत्पादन कमजोर रहने की आशंका है। देश में राजस्थान और गुजरात सर्वाधिक मेथी उत्पादन करने वाले प्रमुख राज्य हैं। 80 फीसदी से ज्यादा मेथी का उत्पादन राजस्थान में होता है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव हर साल और भी अधिक तीव्रता और आवृत्ति के साथ बढ़ रहे हैं।
पिछले पखवाड़े दक्षिण भारत में रिकॉर्ड बारिश दर्ज की गई। तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भारी बारिश हुई और दक्षिण-पश्चिम मानसून सीजन में पहली बार बंगलुरु में 1,000 मिलीमीटर से अधिक बारिश हुई। मुंबई और इसके आसपास के इलाकों में भी बहुत पानी बरसा। अब दक्षिण-पश्चिम में मानसून की वापसी कुछ देरी से होगी। सामान्य रूप से 17 सितंबर तक मानसून की बारिश खत्म होने की संभावना रहती है, लेकिन पिछले साल मध्य अक्तूबर तक मानसून की बारिश हुई।
बांग्लादेश में अभूतपूर्व बाढ़, फिर असम में बाढ़, मध्य प्रदेश से सटे राजस्थान के कुछ इलाकों में भारी बारिश, पाकिस्तान में बाढ़ और बंगलुरु में बाढ़- इन सभी घटनाओं ने दिखाया है कि कैसे दक्षिण एशिया में चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति में तेजी से वृद्धि हुई है। बाढ़ का खाद्य उत्पादन पर विनाशकारी परिणाम जगजाहिर है। जलभराव से ज्यादातर फसलें नष्ट हो जाती हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाली सभी प्राकृतिक आपदाएं पैदावार कम करने के साथ-साथ पोषण की गुणवत्ता में कमी करती हैं और कीटों तथा पौधों की बीमारियों में वृद्धि।
वर्ष 2019 में, लाखों लोग पहले से ही जलवायु परिवर्तन के कारण खाद्य असुरक्षा से पीड़ित थे और वैश्विक फसल उत्पादन में दो से छह फीसदी तक गिरावट की भविष्यवाणी की गई थी। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में यह भविष्यवाणी की गई है कि 2050 तक खाद्य कीमतों में 80 फीसदी की वृद्धि होगी, जिससे खाद्य असुरक्षा की आशंका बढ़ेगी, जो गरीब समुदायों को असमान रूप से प्रभावित करेगा।
जलवायु परिवर्तनशीलता के साथ क्षेत्रीय पारिस्थितिक चुनौतियों ने बाढ़ के जोखिम को बढ़ा दिया है। हमें यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि भारतीय शहरों में कई जलवायु जोखिम एक साथ आ रहे हैं, इसके लिए विभिन्न व्यावहारिक अनुकूलन विकल्प मौजूद हैं और विकल्पों के संयोजन अधिक प्रभावी हैं, उन्हें लागू करने के लिए मजबूत शासन और पर्याप्त वित्त की आवश्यकता है। साथ ही इस दिशा में सभी को एकजुट होकर कार्य करने की आवश्यकता है।
एक नवीनतम शोध के अनुसार, धरती के गर्म होने के साथ-साथ जलवायु संबंधी कुछ प्रलयकारी प्रभाव भी हो सकते हैं, यानी वैसी स्थिति, जब एक हद से अधिक तापमान वृद्धि के बाद जलवायु तंत्र का एक हिस्सा अनियंत्रित हो जाता है। यह बदलाव बहुत खतरनाक होता है, जिसका दुनिया पर काफी विनाशकारी प्रभाव पड़ सकता है।