हेमा मालिनी को अब भी दुनिया ‘ड्रीम गर्ल’ के तौर पर ही याद करती है। राज कपूर के साथ अपनी पहली हिंदी फिल्म ‘सपनों का सौदागर’ कर चुकीं हेमा मालिनी को ‘जॉनी मेरा नाम’, ‘लाल पत्थर’ और ‘अंदाज’ जैसी फिल्मों से लोग नोटिस तो करने लगे थे लेकिन उनके करियर का सबसे बड़ा टर्निंग प्वाइंट बनकर आई फिल्म ‘सीता और गीता’। इस फिल्म की रिलीज के 50 साल पूरे होने के मौके पर हेमा मालिनी ने ‘अमर उजाला’ के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल से एक लंबी बातचीत की। इस बातचीत में पहली बार हेमा मालिनी ने संजीव कुमार के अपने ऊपर फिदा होने की बात तो स्वीकारी ही, साथ ही ये भी बताया कि उनसे ज्यादा एक दूसरा अभिनेता उन दिनों लट्टू हुआ करता था। फिल्म से जुड़ा एक भावुक कर देने वाला वाक्या ये भी कि जहां अब उनकी बेटी अपने बच्चों के साथ रहती हैं, उसी घर के सामने कभी हेमा मालिनी इस फिल्म के लिए घाघरा पहनकर नाच चुकी हैं। ऐसे ही कई मजेदार किस्सों से भरा है हेमा मालिनी का ये SUPER EXCLUSIVE इंटरव्यू..

हेमाजी, फिल्म ‘सीता और गीता’ की कहानी जब पहली बार सुनाई गई तो आपकी प्रतिक्रिया क्या थी? दिलीप कुमार की ‘राम और श्याम’ की कहानी से मिलती जुलती ये फिल्म करने में कहीं कोई हिचकिचाहट थी?

अब क्या बताऊं मैं। फिल्मों में तो हम आ गए थे फिल्म ‘सपनों का सौदागर’ से लेकिन इसमें इतना बड़ा करियर बनाने वाली हूं, ये तो मालूम ही नहीं था। मेरा बेस उन दिनों मद्रास था। दिल्ली से हम लोग जा चुके थे। पापा का ट्रांसफर हो गया था। वहीं पर देखी थी हमने ‘राम और श्याम’ थियेटर में जाकर। बड़ी अच्छी लगी फिल्म और बहुत मजा आया। पर सोचा ही नहीं था कि इसी कहानी को कभी हम ‘सीता और गीता’ की तरह भी करेंगे। मैं मुंबई आती जाती रहती थी शूटिंग के लिए। फिल्म ‘अंदाज’ में काम कर रहे थे निर्देशक रमेश (सिप्पी) जी के साथ। सब कुछ नया नया था तो डर भी लगता है, कैसे करना है? क्या करना है? इतने बड़े एक्टर शम्मी कपूर जी के साथ काम करना था। और, राजेश खन्ना! एकदम उभरता हुआ पॉपुलर आर्टिस्ट बनता जा रहा था। उसकी और मेरी पहली पिक्चर आगे पीछे ही रिलीज हुई। लेकिन, उनको कामयाबी बहुत तेजी से और बहुत जल्दी से मिली। फिल्म ‘अंदाज’ की डबिंग के दौरान ही पहली बार ‘सीता और गीता’ का जिक्र मेरे सामने आया।

अच्छा कैसे, किसने किया?

क्या होता है जैसे ही एक पिक्चर डबिंग पर जाती है तो निर्देशक अगली पिक्चर की प्लानिंग शुरू कर देते हैं। तो रमेश जी एक दिन बोले, ‘एक बहुत बढ़िया स्क्रिप्ट है। मैं उस पर फिल्म बनाने की सोच रहा हूं। इसमें डबल रोल है।’ मैं सोचने लगी कि डबल रोल किसका है? पता नहीं क्या बोल रहे हैं? मैंने उनको बताया कि अभी मैंने कुछ वक्त पहले देखी है ‘राम और श्याम’। तब, वह कहने लगे कि हम वही कहानी बना रहे हैं लेकिन इसका लेडीज वर्जन। मेरे हिसाब से तब वह मुमताज को लेकर ये फिल्म बनाने का विचार कर रहे थे तो मैंने कुछ ज्यादा कहा नहीं। बस इतना ही कहा, ‘वाऊ, बहुत अच्छा है, बहुत अच्छा है।’ फिर कुछ दिनों के बाद आकर वह मुझसे बोले कि क्या आप ये फिल्म करना चाहेंगी? मैंने कहा कि करना चाहेंगी कि क्या मतलब होता। मुझे तो करना है। मुझे बहुत अच्छा लगेगा, मजा आएगा। बस तुरंत सारी योजनाएं बननी शुरू हो गईं। मैं कह सकती हूं कि रमेश जी ने पहले ही मुझे लेने की योजना बना ली होगी, लेकिन क्या है कि फिल्म इंडस्ट्री में लोग सीधे सीधे और जल्दी जल्दी नहीं बोलते हैं। पहले कलाकार को उकसाते हैं ताकि वह सामने से बोले कि मुझे करना, करना है। कलाकार के अंदर एक उत्तेजना जगाते हैं पहले। और, जब ऐसा दिखने लगता है तो उस वक्त आकर पकड़ते हैं।

मुझे हाल ही में बताया गया कि फिल्म ‘सीता और गीता’ की शूटिंग करते समय रमेश जी धीमे से आपको आवाज देकर बताते थे कि ये सीन सीता का है, ये गीता का है?

वह शूटिंग के पहले मुझे समझाते थे कि ऐसा करो। सीता ऐसी है, गीता ऐसी है। लेकिन, ड्रेस पहनने के बाद मुझे मालूम होता था कि ये क्या है? सीता है कि गीता है। सेट पर साड़ी पहनकर आई तो मैं तो सीता ही हूं तो उस वक्त अगर आप मुझे गीता का एक्शन करने को कहोगे तो भी मैं कर नहीं सकूंगी। फिर अगले दिन उसी सेट पर, मैं उसी लोकेशन पर गीता का सीन करने को हुआ तो बड़ी बड़ी दो चोटी बना ली। गुदने के स्टिकर चिपका लिए। वो काली काली बिंदी लगाते हैं ना आदिवासी जैसा दिखने के लिए। मेकअप होते ही मेरी चाल, ढाल सब बदल जाती थी। उसका घाघरा मुझे अब भी याद है। इतना सुंदर और इतना बड़ा घेर का कि एक भी स्टेप रखो तो पूरा ऊपर, नीचे ऐसा जाएगा। तो बताना नहीं होता था। कॉस्टयूम और मेकअप के साथ ही भाव आ जाता था कि आज मैं सीता हूं या गीता।

और, अब कभी आप नरीमन प्वाइंट या वर्ली की तरफ जाती हैं तो याद आती है आपको ये फिल्म, जिसका एक गाना वहां आपने गली चौराहों पर शूट किया था..

हां, वो तो बहुत याद है। वो जो पूरा गाना था ना कि, ‘जिंदगी है खेल कोई पास कोई फेल, खिलाड़ी है कोई अनाड़ी है कोई’, वो तो पूरी मुंबई में हमने शूटिंग की उसकी। करीब एक हफ्ते तक चलती रही उस गाने की शूटिंग। कभी नरीमन प्वाइंट में, कभी वर्ली में। वर्ली में भी उसकी शूटिंग वहां पर हुई। जहां किसी पारसीवालों का घर है वहां पर। वहां एक तीन रास्ता था। और पास में थोड़ी जगह खाली पड़ी थी। वहीं पर रस्सी डालकर वो मेरी शूटिंग की गई। अभी कुछ दिनों पहले मैं ऐसे ही ‘सीता और गीता’  देख रही थी तो मेरी बेटी बोली, मम्मा ये तो हमारा घर है। आपको भी जानकर हैरानी होगी कि मेरी बेटी अब उसी घर में रह रही है। फिर मेरे नाती को भी उसने दिखाया कि देखो, तुम्हारे घर के सामने नानी ने उस टेबल पर डांस किया था। और, उस घर की जो हाउसकीपर हैं, वह भी मुझे मिलीं। वे बताने लगीं, ‘मैं बहुत छोटी थी। शॉट के बीच बीच में आकर मेरे घर के सामने ही बैठती थीं आप। तब शूटिंग के बीच में वहीं कहीं एक कुर्सी डाल देते थे शॉट्स के बीच में आराम करने के लिए।’ ये भी एक मेमोरी है मेरे लिए। और वो जुहू में भी शूटिंग हुई थी जहां जमनाबाई स्कूल है। वहां ये सब बच्चे जाते रहे है। बच्चे अब भी फिल्म ‘सीता और गीता’ का पूरा वीडियो देखते हैं। देखो ना, जहां मैंने करियर के शुरुआत में शूटिंग की। वहीं मैं फिर गई नानी बनकर।





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By attkley

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